कश्मीर, सुलगता झुलसता हुआ एक प्रदेश. आज के वक़्त में आम धारणा के हिसाब से आतंकवाद, हिंसा, पत्थरबाजी वाली एक ऐसी जगह जहाँ लोग हिंद्स्तान के विरोध में सड़कों पे आ जाते हैं. राष्ट्रवाद , भारतीय राष्ट्रवाद ? देशप्रेम ? भारत देश से प्रेम ? जैसी सोच शायद वहाँ नहीं बसती , ऐसा आम तौर पर भारत में रहने वाले काफी लोगों का मानना है. बहरहाल , इसके कारणों में न जाते हुए, आपको बताते हैं एक ऐसी कहानी जिसमें कश्मीर की टोपी ने , भारत के स्वंतंत्रता संघर्ष में अपनी भूमिका निभायी. जी हाँ, कश्मीरी टोपी, जिसे लगाने वाले को आज बहोत सी निगाहें शक़ की नज़र से देखती हैं, बिना इस बात की रत्ती भर भी उम्मीद किये हुए की यह टोपी भारत को आज़ादी दिलाने वाले संघर्ष का एक हिस्सा भी थी।
बात तब कि है जब महात्मा गाँधी भारत के स्वन्त्रता संग्राम के अग्रणी नायकों में से एक थे. गाँधी जी ने एक दिन विचार किया की भारत मुख्यतया एक गर्म जलवायु देश है और ऐसे में आम तौर पर सर पे टोपी अवश्य रखनी चाहिए। गाँधी जी अपनी व्यक्तिगत अथवा सामाजिक कोई भी बात या विचार को बड़ी गहनता के साथ विचारने के बाद ही निर्णय लेते थे। यही बात टोपी के सन्दर्भ में भी लागू हुई। टोपी एक छोटा मसला दिख सकता है, पर आइये देखें काका कालेलकर से गाँधी जी ने इस विषय पर क्या कहा। बापू की झाँकियाँ नामक किताब में काका कहते हैं :
गाँधी ने कहा "भारत एक गर्म देश है और यहाँ गर्मी से बचने के लिए सर ढँकना ज़रूरी लगता है और इसीलिए यहाँ विभिन्न प्रकार की टोपी और पगड़ी चलन में हैं। हालाँकि कुछ बंगाल के लोग और कुछ ब्राह्मण लोग सर नहीं ढँकते लेकिन अधिकाँश जनसँख्या पगड़ी या टोपी किसी न किसी रूप में उपयोग करती है। पंजाबी पगड़ी अच्छी है पर उसमें कपडा बहोत लगता है,और ये पसीना भी अंदर ही सोख लेती है। गुजराती चोटीदार टोपी देखने में उतनी अच्छी नहीं लगती। महाराष्ट्र की टोपी अच्छी तो लगती है लेकिन नमदा पदार्थ से बनी होती है। उत्तर प्रदेश और बिहार की टोपियां इतनी पतली हैं कि उन्हें टोपी भी नहीं कह सकते। "
कालेलकर कहते हैं कि गांधी जी को कश्मीरी टोपी अच्छी लगी क्योंकि यह टोपियां हल्की थी और मोड के जेब में रखी जा सकती थी। यह टोपियां बनाने में आसान भी थी लेकिन ऊन से बनी हुई थी और इसीलिए गांधी जी ने ऊन के स्थान पर खादी का प्रयोग करने का विचार किया। उन्होंने फिर सोचा यदि खादी का प्रयोग हो भी तो किस रंग का जो कि सर पर शोभा दें। और फिर कई विचार करने के बाद उन्होंने श्वेत रंग का ही चुनाव किया और उसका उसका कारण दिया की सफेद रंग की टोपी पर पसीना होने पर वह तुरंत मालूम चल जाएगा और ऐसा होना यह बताएगा की टोपी को धुला जाना है और इस कारण स्वच्छता बनी रहेगी। लोग भी सफेद टोपियों में अच्छे दिखेंगे और ऐसे बहुत से विचार के बाद गांधी जी ने अपनी पसंद की टोपी बनाने का निर्णय लिया।
काका बताते हैं कि गांधीजी को सोला टोपी भी बहुत पसंद है क्योंकि वह आँखों और गले तक को धूप से बचाव कर सकती थी साथ ही वह लकड़ी के एक पदार्थ सोला से बने होते थे और इसलिए हल्के थे
गांधी जी को सोला टोपी अच्छी लगने के बावजूद उन्होंने इसको मना कर दिया क्योंकि यह टोपी देश के किसी भी भाग में पहने जाने वाले पारंपरिक परिधानों में से नहीं थी. साथ ही सोला टोपी यूरोपियन प्रकार की होने के कारण लोगों में बहुत ज्यादा स्वीकार्य नहीं की जाएगी ऐसा भी सोचना था और इसीलिए अंतिम रुप से विचार की गई कश्मीरी टोपी जिसमें ऊन के स्थान पर सफेद खादी का प्रयोग किया जाए, को अंतिम रुप से टोपी के रूप में माना गया।
यही नहीं गांधीजी सोला टोपी के बारे में विचार रखते थे कि उनका (गाँधी जी का) संकीर्ण राष्ट्रवाद सोला टोपी के विरुद्ध था तो वही उनका गुप्त अंतर्राष्ट्रीयवाद ऐसा मानता था कि सोला टोपी यूरोप को प्राप्त ऐसे कुछ वरदानों में से है जो यूरोप द्वारा दिए गए.
गांधीजी आगे कहते हैं कि मेरे अपने विचार में शिक्षित भारत एक आज स्वच्छ और भद्दे पैंट को तो पहन लेता है मगर सोला टोपी पहनते हुए उसे हिचकिचाहट होती है. लेकिन वह कहते हैं कि फिर भी मैं जानता हूं की राष्ट्रीय पसंद और नापसंद किसी कारण से नियंत्रित नहीं होती उस पर तर्क लागू नहीं होते।
टोपी के विषय में विचार करते समय गांधी जी ने उसके हल्का होने , छोटा होने, रखने में आसान होने और सस्ते होने तथा अच्छे देखने हाथी जैसी बातों पर विचार किया साथ ही यह भी सोचा की क्या कोई ऐसी टोपी हो सकती है जिसे पूरा राष्ट्र एक पहचान के रुप में स्वीकार करें? लोगों को कुछ भी सर पर पहनने के लिए देना या उसके लिए राजी कर देना कोई समस्या नहीं थी लेकिन समस्या यह थी गांधी चाहते थे की टोपी ऐसी हो जो अलग तरह की टोपियों और पगड़ियों जिसमें चलते हुए लोग चलते हुए विज्ञापन या अलग-अलग सामाजिक पहचान केना दिखने के बजाए एक तरह के दिखे और वह अपनी धार्मिक, जातीय, क्षेत्रीय, आर्थिक पहचानो से ऊपर हो। गांधी को यह भले नामालूम रहा हो कि उन्हें कैसी टोपी चाहिए पर उन्हें यह जरूर मालूम था कि उन्हें कैसी टोपी नहीं चाहिए और इसीलिए गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार आदि स्थानों की अलग-अलग टोपियों को बहुत ही गुणता से गांधी ने देखा और उसके बारे में विचार किया।
कश्मीरी टोपी को अंतिम रूप से चुने जाने के बाद गांधी ने उस को बढ़ावा देने में जरा भी देर नहीं करी। उन्होंने खुद टोपी पहनना शुरू किया और बाकी लोगों से अपील करी की वह भी इस टोपी को पहनना शुरू करें। उन्होंने कहा की खादी टोपी सब के द्वारा प्रयुक्त की जा सकती है चाहे वह अमीर हो या गरीब हो। विचार यह है कि सब के पास सबके सर पर एक जैसी ही टोपी हो।
यह पहली बार था जब पूरा राष्ट्र एकरूपता मैं दिखाई पड़ रहा था और गांधी इसकी मांग कर रहे थे। शुरुआत में कुछ लोगों ने इस से भागना भी चाहा, कुछ लोगों ने गांधी टोपी को रंग-बिरंगा करके भी प्रस्तुत किया, मगर गांधी ने फिर से कहा की एक स्वदेशी टोपी वही हो सकती है जो सबके सिर पर एक जैसी दिखे और यहां तक कि बच्चे भी उसको पहचान लें।
सिर्फ एक साल के भीतर गांधी टोपी ने अपना इतना स्थान बना लिया कि वह कांग्रेस के गणवेश में शामिल हो गई और सभी बड़ी राजनीतिक बैठकों के समय बाहर रखी जाने लगी ताकि लोग इसको लगाकर जा सकें। कभी-कभी बड़ी बैठकों में बड़ी बैठकों में टोपी ना पहनने वालों को गांधी जी के गुस्से का भी सामना करना पड़ा और अंततः टोपी और राष्ट्रीयता आपस में इतनी जुड़ गई की अंग्रेजों को बीच में कूदना पड़ा और उन्होंने खादी टोपी की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया।
गांधी के इस तरह के प्रयोगों से हमेशा डरने वाले अंग्रेजों ने गांधी टोपी पहनने वालों को सरकारी नौकरियों से निकलना शुरू कर दिया, उन्हें कोर्ट कचहरी और सार्वजनिक स्थानों पर प्रवेश से कई बार रोक दिया गया और यहां तक कि कुछ बार उन्हें पीटा भी गया और जुर्माना भी वसूला गया और इसी के साथ ही गांधी ने अपने इस प्रयोग को आजादी की एक राष्ट्रीय पहचान के रुप में बदल दिया। उन्होंने देश के नागरिकों से आग्रह किया की खादी टोपी पहनने के लिए तैयार हो जाओ और खादी टोपी के लिए मरने के लिए तैयार रहो क्योंकि यह स्वदेशी और स्वराज की तेजी से बढ़ती हुई एक जीवित पहचान है।
आज आजादी के बाद यह खादी टोपी जिसे गांधी टोपी के रूप में जाना गया, तुरंत के प्रधानमंत्रियों जैसे जवाहरलाल नेहरू लाल बहादुर शास्त्री और मोरार जी देसाई ने अपने साथ एक विरासत के रूप में और एक पहचान के रूप में जारी रखी और ऐसे नेताओं के बाद भी भारतीय राजनीति में और समाजिक क्षेत्रों में यह टोपी बाद में भी प्रयुक्त होती रही।
आज जब ना तो गांधी हैं न उन की टोपी आजादी की पहचान के रुप में हमारे साथ है। यह टोपी यदाकदा ही प्रयोग में आती है, वह भी ज्यादातर राजनीतिज्ञों द्वारा। मगर फिर भी इतिहास हमेशा एक इतिहास होता है जिसमें अपना एक सच होता है और तमाम रोचक बातें भी। यह एक रोचक संयोग ही है की वही गांधी टोपी जिसके लिए आजादी के मतवाले मर जाने को तैयार हो गए थे जो भारत की आजादी की लड़ाई की एक पहचान बन चुकी थी और जिसको देखकर अंग्रेजों के मन में डर और गुस्सा पैदा होता था वह टोपी कश्मीर की टोपी का एक परिवर्तित रूप थी और आज कश्मीर में भी ना तो टोपी ठीक से जी रही है और ना ही गांधी की विरासत के रूप में बाकी भारत में ही फिर भी शायद इतना ही बहुत है कि कश्मीर की यह टोपी भारत की आजादी की लडाई की पहचान रह चुकी है।
फोटो संलग्न : महात्मा गाँधी का राष्ट्रीय गाँधी संग्रहालय , राजघाट , नयी दिल्ली में प्रदर्शित चित्र
((फोटो : रवि नितेश )
इस लेख के कुछ भाग रामचंदानी ब्लॉग (अंग्रेजी) से लिए गए हैं